Tuesday, October 11, 2011

प्रेम -दीवानी









तुम ..वो ..ऊँचाई हो ...
जिसे छूने के प्रयास में  -
मैं  बार- बार गिरी  -गिरती  गई -
परत -दर -परत तुम्हारे सामने -
खुलती रही ---बिछती रही -
पर --तुम्हारे  भीतर  कही  कुछ  उद्वेलित नही  हुआ ----|
मेरी आत्म -- स्वकृति को तुमने  कुछ  और ही अर्थ  दे  डाला --?
मै अंधी गुमनाम धाटियो मे तुम्हारा नाम पुकारती रही -----
धायल  !
खुरदरी --पीड़ा -जनक -!!
अकेलेपन  का एहसास !!!
ल--- म्बे  समय  से झेल रही हु ------?
 नाहक ,तुम्हे बंधने की कोशिश ---
" छलावे के पीछे भागने वाले  ओंधे मुंह गिरते है -"
इस तपती हुई मरुभूमि मे ----
चमकती -सी बालू -का -राशि ---
जैसे कोई प्यासा हिरन ,पानी के लिए ----
कुलांचे  भरता जाता है ---                  
अंत--  मे  थककर दम तोड़ देता है ---
तुम्हारे लिए --------
इस मरु भूमि में  ---मैं  भी भटक रही हूँ ----
काश -- कि --तुम ----मिल जाते --------|








कभी -कभी सारी दुनियां  की चाहत मिल जाती हैं !
कभी-कभी एक की चाहत को तरसते रहते हैं !!

13 comments:

रश्मि प्रभा... said...

abhi bhi chaah baki hai ?

प्रेम सरोवर said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

mridula pradhan said...

bahut achcha likhi hain.....

Maheshwari kaneri said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

Sunil Kumar said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति......

दिगम्बर नासवा said...

कमाल की रचना है ... लाजवाब .....

अभिषेक मिश्र said...

सही कहा आपने कि कभी-कभी एक की चाहत को भी तरसते रहते हैं.

संतोष पाण्डेय said...

भावों की गहराई लाजवाब है. प्रेम की पराकाष्ठा.
दीपोत्सव की शुभकामनायें.

Dr.R.Ramkumar said...

छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"




सचमुच! ठीक उसी तरह जैसे अंधेरे हमेशा अपनी लाश लिए फिरते हैं

मदन शर्मा said...

आदरणीय दर्शन कौर जी नमस्ते !
बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद !
मेरी तरफ से आपको भैयादूज पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!!!!!

ZEAL said...

sahi likha hai..

Minakshi Pant said...

कभी -कभी सारी दुनियां की चाहत मिल जाती हैं !
कभी-कभी एक की चाहत को तरसते रहते हैं !!..बहुत खूब |
अर्ज किया है .....
जब सब साथ थे तब वक्त ने साथ न दिया |
आज वक्त है तो तेरा साथ ही नहीं मिलता |
बहुत सुन्दर रचना दोस्त |

हरकीरत ' हीर' said...

छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"

हा...हा...हा.......
खुद ही लिखते हो खुद ही जवाब भी देते हो .....
दर्शी जी इह सूट कित्थों कडदे हो इन्ने सोहणे सोहणे ......"))

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