तुम ..वो ..ऊँचाई हो ...
जिसे छूने के प्रयास में -मैं बार- बार गिरी -गिरती गई -
परत -दर -परत तुम्हारे सामने -
खुलती रही ---बिछती रही -
पर --तुम्हारे भीतर कही कुछ उद्वेलित नही हुआ ----|
मेरी आत्म -- स्वकृति को तुमने कुछ और ही अर्थ दे डाला --?
मै अंधी गुमनाम धाटियो मे तुम्हारा नाम पुकारती रही -----
धायल !
खुरदरी --पीड़ा -जनक -!!
अकेलेपन का एहसास !!!
ल--- म्बे समय से झेल रही हु ------?
नाहक ,तुम्हे बंधने की कोशिश ---
" छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"
इस तपती हुई मरुभूमि मे ----
चमकती -सी बालू -का -राशि ---
जैसे कोई प्यासा हिरन ,पानी के लिए ----
कुलांचे भरता जाता है ---
अंत-- मे थककर दम तोड़ देता है ---
तुम्हारे लिए --------
इस मरु भूमि में ---मैं भी भटक रही हूँ ----
काश -- कि --तुम ----मिल जाते --------|
कभी -कभी सारी दुनियां की चाहत मिल जाती हैं !
कभी-कभी एक की चाहत को तरसते रहते हैं !!
13 comments:
abhi bhi chaah baki hai ?
बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
bahut achcha likhi hain.....
बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति......
कमाल की रचना है ... लाजवाब .....
सही कहा आपने कि कभी-कभी एक की चाहत को भी तरसते रहते हैं.
भावों की गहराई लाजवाब है. प्रेम की पराकाष्ठा.
दीपोत्सव की शुभकामनायें.
छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"
सचमुच! ठीक उसी तरह जैसे अंधेरे हमेशा अपनी लाश लिए फिरते हैं
आदरणीय दर्शन कौर जी नमस्ते !
बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद !
मेरी तरफ से आपको भैयादूज पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!!!!!
sahi likha hai..
कभी -कभी सारी दुनियां की चाहत मिल जाती हैं !
कभी-कभी एक की चाहत को तरसते रहते हैं !!..बहुत खूब |
अर्ज किया है .....
जब सब साथ थे तब वक्त ने साथ न दिया |
आज वक्त है तो तेरा साथ ही नहीं मिलता |
बहुत सुन्दर रचना दोस्त |
छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"
हा...हा...हा.......
खुद ही लिखते हो खुद ही जवाब भी देते हो .....
दर्शी जी इह सूट कित्थों कडदे हो इन्ने सोहणे सोहणे ......"))
Post a Comment