Tuesday, August 4, 2015

जीवन की विभीषिका

💖 जीवन की विभीषिका 💕
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अपने चेहरेे पर झूठ का मख़ौटा चढ़ाती हूँ
दिल के अरमानों को हर दिन दफ्न करती हूँ
अपनी उड़ानों के पंख कतरते हुए,
रोज सूली पर चढ़ जाती हूँ....!

दुखों के सैलाब को आगोश मेँ छुपाती हूँ
रोज़ ख़ुशी के आंसू सोगात में लाती हूँ
दिल के जख्मो को मरहम लगाती हू
सन्नटें में खूब चीखती चिल्लाती हूँ
और हर दिन यू ही सूली पर चढ़ जाती हू....!

रातो की रौनक बनने को संवरने लग जाती हूँ
भोर की रश्मियों से चेहरे को छुपाती हूँ
चाँद की चादनी से कालिख को मिटाती हूँ
फिर चूल्हे की लकड़ियों को सुलगाते हुए
भरी हुई आँखों से सूली पर चढ़ जाती हूँ ....!

मायूसीयो के नकाब पर
हंसी का लबादा ओढ़कर
महफ़िल की जान बन जाती हूँ
गजरे की खुशबु में तन का पसीना पोंछकर
खुशबूदार गिलौरी से होठो को सजाती  हूँ
सैंया की सेज पर करहांटें भूलकर
खुद को समर्पित करते हुए सूली पर चढ़ जाती हूँ।

(यहाँ "सूली पर चढ़ने'' का मतलब  जिंदगी की परेशानियों को पूरा करने से है )

---दर्शन कौर ।



2 comments:

nayee dunia said...

yahi to jindgi ka sach hai .....bahut sundar

Unknown said...

सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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