तुम ..वो ..ऊँचाई हो ...
जिसे छूने के प्रयास में -मैं बार- बार गिरी -गिरती गई -
परत -दर -परत तुम्हारे सामने -
खुलती रही ---बिछती रही -
पर --तुम्हारे भीतर कही कुछ उद्वेलित नही हुआ ----|
मेरी आत्म -- स्वकृति को तुमने कुछ और ही अर्थ दे डाला --?
मै अंधी गुमनाम धाटियो मे तुम्हारा नाम पुकारती रही -----
धायल !
खुरदरी --पीड़ा -जनक -!!
अकेलेपन का एहसास !!!
ल--- म्बे समय से झेल रही हु ------?
नाहक ,तुम्हे बंधने की कोशिश ---
" छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"
इस तपती हुई मरुभूमि मे ----
चमकती -सी बालू -का -राशि ---
जैसे कोई प्यासा हिरन ,पानी के लिए ----
कुलांचे भरता जाता है ---
अंत-- मे थककर दम तोड़ देता है ---
तुम्हारे लिए --------
इस मरु भूमि में ---मैं भी भटक रही हूँ ----
काश -- कि --तुम ----मिल जाते --------|
कभी -कभी सारी दुनियां की चाहत मिल जाती हैं !
कभी-कभी एक की चाहत को तरसते रहते हैं !!