अरमां तमाम उम्र के सीने में दफन हैं !
हम चलते-फ़िरते लोग मजारों से कम नहीं !! (अज्ञात)
बचपन की वो प्यारी गुड़िया
मुझको हरदम याद आती है
गोल -मटोल आँखे थी उसकी
परियों जैसी लगती थी
एक दिन पापा ने उसको
मेरी गोद में पटका था
कहते थे- तेरी है बन्नो --
गोद में उठाकर उसको
सारी बस्ती घुमा करती थी मैं ?
कोई पूछता नाम क्या है बन्नो --
अप्पू !सबको बतलाती थी मैं !
अप्पू !को खिलाती थी मैं !
अप्पू !को पहनाती थी मैं !
अप्पू के संग सोती थी मैं !
अप्पू का हर दुःख सहती थी मैं --
इक दिन वो बे-जान हो गई ?
मुझसे यूँ अनजान हो गई ?
हाथ किधर था --?
पैर कहाँ हैं --?
खून ???
खून से सन गई थी ?
जिस्म किधर था पता नहीं --?
जान किधर थी अता नहीं --?
रोते-रोते धूम रही थी --
बिखरे टुकड़े ढूंढ रही थी --?
ऐसा क्यों होता है हरदम --
खेलने वाले खेल जाते हैं --
अपने फिर गुम हो जाते हैं --
आँखों में आंसू की धारा --
अपने ही क्यों दे जाते हैं --????
बिन होली क्यों खेली जाती
खून से भरी पिचकारियाँ --
बिन दिवाली क्यों चलाई जाती
बमों की यह लड़ियाँ --
गुम हुए अपनो को फिर हम --
कैसे ढूंढें ? कहाँ ढूंढें ..??
क्यों कुछ पता नही दे जाते ?
क्यों होते हैं ये धमाके ?
क्यों होते हैं ये धमाके ?????
क्यों होते हैं ये धमाके ?????