सपने टूटने की चुभन
"तेरे जाने के बाद मैनें उस चादर को भी नहीं बदला "
बिस्तर की सलवटों को जब भी देखती हूँ
तो मन कसमसा जाता हैं
कराह उठता हैं
तेरा यू चले जाना
यू दग़ा देना
मन पर एक बोझ -सा लद जाता हैं
सामने लगे शीशे पर ,
जब भी अपना अक्श देखती हूँ
तो कुछ सफ़ेद तार झिलमिलाने लगते हैं
आँखों पर मवाद -सा छा जाता हैं
नीली स्वप्निल आँखों में कीचड़ -सा भर जाता हैं
" मैं कुछ मुटिया -सी गई हूँ "--सोचती हूँ
खूबसूरती फुर र र र से उड़ गई हैं
जवानी दबे पाँव कहीं चली गई हैं
आँखों पर झुरियो की हलकी -सी परत का जमना
उफ़ ! क्या बुढ़ापे ने दस्तक दे दी हैं ?
अपने मौजूदा वजूद को क्यों नकारने लगी हूँ ..?
बालो की सफेदी को क्यों छिपाने लगी हूँ ?
चुप -के से शीशे को निकालकर ,
उन चंद बालो को तोड़ने लगती हूँ ?
ऊहूँ !"मुए, कहीं ओर जाओ ..यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं "
जाने क्यों गुस्सा आता हैं जब कोई 'आंटी' कहता हैं ?
मैं ओर आंटी ! कभी नहीं ?
क्यों खुद को आज भी अल्हड समझती हूँ ?
अपने ही दायरे में कैद हूँ --???
अपने ही सपनो में विचरण कर रहीं हूँ ?
मैं खुद , कब इस जीवन -चक्र का हिस्सा बन गई -पता ही नहीं चला !
सपने टूटने का दर्द थोडा तो होता हैं न ????