दिवा--स्वप्न
दिवा स्वप्न देख-देख अब बहुत खुश हो चुकी ,
चैन से रातो को सोना भी अब तो मुहाल हो गया !
आकाश की गहराइयो को लांधकर बहुत थक चुकी ,
पैर जमीं पर रखना भी अब तो मुहाल हो गया !
पंखो को देखती हूँ अपनी कातर निगाहों से मैं ,
ये कब के कट चुके, अब तो दर्द भी इनका तो मुहाल हो गया !
प्यार की रंगीनियों में सिमट जाना चाहती थी,
तेरी बेरुखी को सहना अब तो मुहाल हो गया !
दुरी अब तो मुझसे सही नहीं जाती तेरी ,
यह रस्मे -जुदाई अब तो काटना भी मुहाल हो गया .!
खुशनसीबी पर तेरी मैं निसार हूँ यारा ,
मेरी जिन्दगी में अब वो उजाला भी मुहाल हो गया !
वो दिल ही क्या जिसमें तेरी कसक न हो ?
तेरी आरजू को दिल में रखना ही अब तो मुहाल हो गया !
रख रखी हैं तेरी यादो को इस मंदिर में सजाए 'दर्शी ',
तेरे संग अब जीना -मरना भी मुहाल हो गया ...!
"काश,उसे चाहने का अरमान न होता
दिल होश में होता और वो अनजान न होता ..!
प्यार न होता किसी पत्थर -दिल से मुझे ,
या रब !उससा कोई पत्थर -दिल इंसान न होता ..!"