Thursday, December 22, 2011

दिवा- स्वप्न



दिवा--स्वप्न





दिवा स्वप्न देख-देख अब बहुत खुश हो चुकी , 
चैन से रातो को  सोना भी अब तो मुहाल हो गया !
आकाश की गहराइयो को लांधकर बहुत थक चुकी ,
पैर जमीं पर रखना भी अब तो मुहाल हो गया !

पंखो को देखती हूँ अपनी कातर निगाहों से मैं ,
ये कब के कट चुके, अब तो दर्द भी इनका तो मुहाल हो गया ! 
प्यार की रंगीनियों में सिमट जाना चाहती थी,
तेरी बेरुखी को सहना अब तो मुहाल हो गया !

दुरी अब तो मुझसे सही नहीं जाती तेरी ,
यह रस्मे -जुदाई अब तो काटना भी मुहाल हो गया .!
खुशनसीबी पर तेरी मैं  निसार हूँ यारा ,
मेरी जिन्दगी में अब वो उजाला भी मुहाल हो गया !

वो दिल ही क्या जिसमें तेरी कसक न हो ?
तेरी आरजू को दिल में रखना ही अब तो मुहाल हो गया !
रख रखी हैं तेरी यादो को इस मंदिर में सजाए  'दर्शी ',
तेरे संग अब जीना -मरना भी मुहाल हो गया ...!   



"काश,उसे चाहने का अरमान न होता 
दिल होश में होता और वो अनजान न होता ..!
प्यार न होता किसी पत्थर -दिल से मुझे ,
या रब !उससा कोई पत्थर -दिल इंसान न होता ..!"
   

Tuesday, November 29, 2011

सपने टूटने की चुभन..

सपने टूटने की चुभन


"तेरे जाने के बाद मैनें उस चादर को भी नहीं बदला "

बिस्तर की सलवटों को जब भी देखती हूँ 
तो मन कसमसा जाता हैं 
कराह उठता हैं 
तेरा यू चले जाना 
यू दग़ा देना 
मन पर एक बोझ -सा लद जाता हैं 
सामने लगे शीशे पर ,
जब भी अपना अक्श देखती हूँ  
तो कुछ सफ़ेद तार झिलमिलाने लगते हैं 
आँखों पर मवाद -सा छा जाता हैं 
नीली स्वप्निल आँखों में कीचड़ -सा भर जाता हैं 

" मैं कुछ मुटिया -सी गई हूँ "--सोचती हूँ 
खूबसूरती फुर र र र से उड़ गई हैं 
जवानी दबे पाँव कहीं चली गई हैं 
आँखों पर झुरियो की हलकी -सी परत का जमना 
उफ़ ! क्या बुढ़ापे ने दस्तक दे दी हैं ?

अपने मौजूदा वजूद को क्यों नकारने लगी हूँ ..?
बालो की सफेदी को क्यों छिपाने लगी हूँ ?
चुप -के से शीशे को निकालकर ,
उन चंद बालो को तोड़ने लगती हूँ ?
ऊहूँ !"मुए, कहीं ओर जाओ ..यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं "


जाने क्यों गुस्सा आता हैं जब कोई 'आंटी' कहता हैं ?
मैं ओर आंटी ! कभी नहीं ?
क्यों खुद को आज भी अल्हड समझती हूँ ?
अपने ही दायरे में कैद हूँ --???
अपने ही सपनो में विचरण कर  रहीं हूँ ?
मैं खुद , कब इस जीवन -चक्र का हिस्सा बन गई -पता ही नहीं चला !

सपने टूटने का दर्द थोडा तो होता हैं न ????


  

Wednesday, November 16, 2011

उल्फत

उल्फत 



तुझसे दूर रहना मेरी आदत नहीं 
पास रहू ये मेरी किस्मत नहीं 



दूर होते हो तो  बीमार -सी  हो जाती हूँ  ?
पास रहते हो तो सरशार -सी हो जाती हूँ ? 
मांगना  मेरी फितरत में नहीं हैं लेकिन --
जाने क्यों तेरी तलबगार -सी हो जाती हूँ  ?




उसकी सरगोशियाँ, बेताबियाँ,जलते जज्बे,
याद आते हैं तो गुलनार -सी हो जाती हूँ  ?
सोचती हूँ, कभी रूठ ही जाऊ मैं उससे---
        सामने उसके मैं अक्सर लाचार -सी हो जाती हूँ ?



जब तसव्वुर में महक जाती हैं खुशबु उसकी 
फूल बन जाती हूँ गुलजार -सी हो जाती हूँ ?




       

Tuesday, October 11, 2011

प्रेम -दीवानी









तुम ..वो ..ऊँचाई हो ...
जिसे छूने के प्रयास में  -
मैं  बार- बार गिरी  -गिरती  गई -
परत -दर -परत तुम्हारे सामने -
खुलती रही ---बिछती रही -
पर --तुम्हारे  भीतर  कही  कुछ  उद्वेलित नही  हुआ ----|
मेरी आत्म -- स्वकृति को तुमने  कुछ  और ही अर्थ  दे  डाला --?
मै अंधी गुमनाम धाटियो मे तुम्हारा नाम पुकारती रही -----
धायल  !
खुरदरी --पीड़ा -जनक -!!
अकेलेपन  का एहसास !!!
ल--- म्बे  समय  से झेल रही हु ------?
 नाहक ,तुम्हे बंधने की कोशिश ---
" छलावे के पीछे भागने वाले  ओंधे मुंह गिरते है -"
इस तपती हुई मरुभूमि मे ----
चमकती -सी बालू -का -राशि ---
जैसे कोई प्यासा हिरन ,पानी के लिए ----
कुलांचे  भरता जाता है ---                  
अंत--  मे  थककर दम तोड़ देता है ---
तुम्हारे लिए --------
इस मरु भूमि में  ---मैं  भी भटक रही हूँ ----
काश -- कि --तुम ----मिल जाते --------|








कभी -कभी सारी दुनियां  की चाहत मिल जाती हैं !
कभी-कभी एक की चाहत को तरसते रहते हैं !!

Saturday, October 1, 2011

* आहत-मन *



आहत-मन  






दिल के टूटने की आहट  कहाँ होती हैं ****
चंद किरचे  जब सुई -सी चुभती हैं ****
तब दर्द का एहसास होता हैं ****
मन धायल हो कराहता हैं ****
दिल टूट जाता हैं ****
आँखों से अश्क बहते हैं ****
गम -ऐ - इश्क किसे सुनाऊ ****
कोई तो अपना नहीं ?
इस बेगानी सरजमी पर --
किसे तलाशती  मेरी आँखे ****
कहाँ खोजू अपनापन****
क्यों हर कोई मस्त हैं ?
क्यों अपने नहीं देते आसरा ?
हम बेगानों को हसरत से  तकते हैं ****
जब छला जाता हें इस दिल को *****
हम जख्मो की तरह रिसते  हैं****
हाथो से फिसलती बालू -का राशी****
हम रेत के घरोंधे बीनते हैं ****
क्यों पत्थरो पर ठहरता नहीं पानी ?
हम लहरों की तरह सर फोड़ते हैं ****
हाथो में लिए पत्थर जब लोग निकलते हैं ****
तब हम क्यों शीशो के महलों में रहते हैं ****
वो हाथो में उठाते हैं खंज़र जब भी --?
हम क्यों सरे- आम कत्ल होते हैं ****
क्यों बिना गुनाह सजा मिलती हैं ?
गुनहगार यु ही खुले आम घूमते हैं ?
समय छलावे की मानिंद हाथो से निकला जा रहा हैं ---
छलनी पकड कर हाथो में वक्त यु ही जाया करते हैं ---
इसी कशमकश में गुज़र रही हैं जिंदगी ---'दर्शन'---
तुम्हें अपनाऊ या छोड़ दूं  -------क्या करू दिलबर **************??? 
        







  
















तल्खियाँ  बहुत मिली जमाने की यारब !
तेरा दीदार मिल जाता तो कोई बात थी !


Thursday, September 22, 2011

* दीदारे -इश्क *






क्यों  ढूंढती  हैं अंखिया तेरे दीदार को सनम !
एक तेरी याद काफी नहीं,मुझे मिटाने के लिए !!  
एक बूंद मै'य को तरसते हैं होठ मेरे ,
कभी आकर मयखाना तो बता दे जालिम !!
उल्फत की ठोकरों ने बना दिया पत्थर हमे !
हम दिल को ढूंढते हैं ,दिल हमको ढूंढता हैं !!
अंधेरो से कहो कोई और घर ढूंढें ,
मेरे घर सजी हैं डोली उजालो की !!
आज बिजली नहीं हैं मेरे आँगन में सनम !
सितारों से कह दो मेरा घर सजा दे ! ! 
उनकी यादो के कमल, उनके प्यार का एहसास !
बस ! यही खजाना तो बचा हैं मेरे पास !!
आज भी  बिजली नहीं  मेरे घर अँधेरा हैं !
रौशनी ढूंढ कर लाओ के दूर सवेरा हैं  !!
ज़हर का प्याला हाथ में पकडाया उस संगदिल ने !
हम तो पहले से ही मर चुके थे,उसकी यादो के बवंडर में !!
अँधेरा मांग रहा था रौशनी उधार !
एक तिल्ली न बची आशियाँ जलाने के लिए !!



Thursday, September 15, 2011

"इश्क पर जोर नहीं "









तुझको भुलाने की कसम खाई हैं खुद से सनम !
तुझको भुलाना मेरी फितरत नहीं मेरी मज़बूरी हैं दिलबर !!
यह न कहना की हम बे -वफ़ा थे सनम !
बा -वफ़ा हमने भी दोस्ती खूब निभाई हैं दिलबर !!
तुझसे तो मिलना अब नामुमकिन हैं सनम !
ये दिल फिर भी तेरा सौदाई हैं दिलबर !!
अब जो बिछड़े तो शायद जन्नत में मिलेगे सनम !
तेरा इंतजार रहेगा आखरी दम तक दिलबर !!
साथ तेरा चाह था उम्रभर के लिए सनम !
बीच में ये रुसवाईयो का जंगल किसलिए दिलबर !!
इश्क पर जोर नहीं' मैं समझती हूँ सनम !
ये इश्क ला -इलाज होगा,ये समझ नहीं आया दिलबर !!
हंस -हंस के गैरो से क्यों बाते करते हो सनम !
इक तेरी मुस्कान के तलबगार हम भी हैं दिलबर !!
तेरी राहो से क्यों नहीं मिलती राहे मेरी सनम !.
प्यार का मका खाली था,राहे भी भटक गई दिलबर !!
मुस्कुरा कर टूटे हुए दिल के टुकडो को समेटती हूँ सनम !
क्यों हर किसी को 'ईनाम' का हक़ नहीं मिलता दिलबर !!
मेरी चाहत पर यकी क्यों नहीं होता तुझको सनम !
यह कसक प्यार की हैं, कैसे समझाऊ तुझको दिलबर !!  
चाहत पर किसी का जोर क्यों नहीं चलता 'दर्शन '!
तन्हाइयो में अक्सर यही सोचती  रहती हूँ मैं  दिलबर !! 

   
     
   

Wednesday, September 7, 2011

अकेलापन !!!!!








मैं कल भी अकेली थी --मैं आज भी अकेली ही हूँ ?
रहू  कैसे तेरी यादों के खंडहर से दूर जाकर --
क्यों सलीब पर लटकाऊ अपनी भावनाओ के पिंजर को 
इक यही तो मेरी पूंजी हैं -इस खजाने को किस पर लुटाऊ 
कहने को तो मैं जिन्दा हूँ -होश भी हैं मुझको
फिर यह आत्मा क्यों भटकती हैं सिर्फ तुम्हे पाने को 
जिन्दगी की इस अधूरी चाह को कैसे ढूँढू ? कहाँ ढूँढू -
कहाँ फैलाऊ अपना आँचल! कहाँ माथा रगडू
इस स्वार्थी लोक में मैंरा तो कोई सगा नहीं ?
सभी बेगाने हैं यहाँ मेरा तो कोई अपना नहीं !    





वो  लोग जिनको समझती थी जिन्दगी अपनी !  
वही लोग दिल को दुखाने की बात करते हैं !

Saturday, August 27, 2011

मुम्बई की सैर :--मेरी नजर में ( 5 )


" ये है बाम्बे मेरी जान " 
"इस्कॉन" 





 कृष्ण जन्मअष्टमी पर आपको मैं ले चलती हूँ .....बाम्बे के हरे रामा हरे कृष्णा मंदिर ..जिसे इस्कॉन भी   कहते हैं ---





( यह हैं इस्कॉन  मंदिर जुहू .मुम्बई )



( यह हैं इस्कॉन  का प्रवेश द्वार )






(हरे रामा हरे कृष्णा  भजन गाते भक्त )






इस्कॉन या अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ को "हरे कृष्ण आंदोलन" के नाम से भी जाना जाता है। इसे १९६६ में न्यूयॉर्क नगर में भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने प्रारंभ किया था। देश-विदेश में इसके अनेक मंदिर और विद्यालय है।पने साधारण नियम और सभी जाति-धर्म के प्रति समभाव के चलते इस मंदिर के अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर वह व्यक्ति जो कृष्ण में लीन होना चाहता है, उनका यह मंदिर स्वागत करता है। स्वामी प्रभुपादजी के प्रयासों के कारण दस वर्ष में ही समूचे विश्व में १०८ मंदिरों का निर्माण हो चुका है । इस समय इस्कॉन समूह के लगभग ४०० से अधिक मंदिरों की स्थापना हो चुकी है।

भारत से बाहर विदेशो मे हजारो विदेशी महिलाए साडी  पहनकर और पुरुष धोती -कुरता  पहनकर दिखाई दे जाएगे -- मांसाहार छोड़ ये प्रभु कृष्ण के कीर्तन करते हुए नजर आएगे ! इस्कान ने पश्चिमी  देशो में अनेक भव्य मंदिर और  विद्यालय बनाए  

जूहू (मुंबई) में स्थित है इस्कॉन का प्रसिद्ध मंदिर !यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है. --यह 1978 में एक आध्यात्मिक केन्द्र के रूप में खोला गया था. तब से इस मंदिर का प्रबंधन इस्कॉन द्वारा किया जाता हैं --



(भक्ति वेदान्त  स्वामी प्रभुपादजी ) 





(अन्दर का बड़ा हाल --अन्दर फोटू खीचना मना हैं )
चित्र:-गूगल जी से 


( अन्दर का द्रश्य )  


( अपनी सहेली रुकमा की छोटी बहन शीला के साथ ) 




( रुकमा और मैं --मंदिर के प्रगांड में )






इस मंदिर की आध्यात्मिकता जो सर्वोपरि है -- परिसर में एक संगमरमर का  मंदिर है जो विशाल है, जिसमें कृष्ण सुभद्रा बलराम की मुर्तिया है --राधा -कृष्ण की भी  मूर्ति हैं --एक पुस्तक प्रकाशन घर है, एक रेस्टोरेंट और एक गेस्ट हाउस है---जहां भक्तों  के रहने और आध्यात्मिक कार्यक्रमों में भाग लेने की व्यवस्ता है--हर दिन यहाँ काफी लोग आते है.---जन्माष्टमी  पर यहाँ  विशेष प्रोग्राम होते हैं ?





( अन्दर के द्रश्य ....कृष्ण का गीता सन्देश --अर्जुन को  बताते हुए)
चुपचाप फोटो खिंच रहे थे तो एक सेवक ने आकर मना किया 








( स्वामीजी का प्रवचन ) 





( गोवर्धन पर्वत उठाते हुए श्री कृष्ण)   




(भक्ति में लींन )




( राधा और कृष्ण का एक खुबसुरत चित्र )


मंदिर में हमेशा भक्तो का जमावड़ा लगा रहता हें--दोपहर को यह दो बजे बंद होता हैं और ३.३० बजे खुलता हैं --आरती के बाद बहार प्रशाद का वितरण होता हैं ---जो काफी मात्रा में होता हैं  ---यहाँ के  रेस्टोरेंट में कई तरह की मिठाइयाँ वाजिब दामो में मिलती हें ---यहाँ मिलने वाला वडापाव,समोसा ,ढोकला और चाय की क्वालिटी बहुत उतम होती हें  --यहाँ आपको तुलसी माला पहने हुए हाथो में जप् माला लिए हुए अनेक लोग देशी -विदेशी मिल जाएगे ---




( छुईमुई राधा --चंचल कृष्ण--) 




अब आपको ले चलती हूँ -- उज्जैन के  इस्कॉन मंदिर में ----जहाँ कुछ दिन पहले मैं गई थी  ----




( यह हैं उज्जैन का इस्कॉन  मन्दिर )




( राधा -कृष्ण )




( उज्जैन के मंदिर के अंदर स्वामीजी की मूर्ति )




इस्कॉन  मंदिर के बहार खड़ी मैं )




( मेरे साथ  मेरे भाई की फैमिली )








( हाल   में  बैठे  हुए )  




अभी यह मंदिर नया हैं ---ज्यादा भीड़ भी नहीं हैं --इस तरह मेरी यात्रा समाप्त हुई !


जल्दी ही मिलेंगे ...मुम्बई के एक नए सफर पर ...

Friday, August 5, 2011

** जनम- दिन **



आज मेरी छोटी बेटी निक्की का जनम-दिन हैं ..



 अपने पापा की गोद में निक्की 

पंजाबी में निक्की का मतलब होता हें--'छोटा '--हर पंजाबी घरो में एक निककी  या एक निक्कू मिल जाएँगे--
आज निक्की का 21वा  जनम दिन हैं ---हमारे पुरे खानदान में वो बहुत लाडली हैं ..पर मुझे याद आ रहा हैं वो दिन जब निक्की इस धरा पर जन्मी भी नही थी ....???
मैं तीसरे बच्चे के एकदम खिलाफ थी --मेरा पूरा परिवार बन चूका था --इसे मैं किसी भी हालत  में नहीं चाहती थी   ..मैने बहुत कोशिश की पर सफल नही हुई --वो कहते है न --'जाको राखे साईयाँ ,मार सके न कोई '--ठीक यही  हाल निक्की के साथ भी हुआ ---???
उसके जनम की मुझे कोई ख़ुशी नहीं हुई --यहाँ तक की मैने उसकी शक्ल भी नही देखी !अपना मुंह फेर लिया .. डॉ ने बहुत  कहाँ की आप एक नन्ही बेटी की माँ बनी हैं ...पर मुझे अच्छा ही नही लग रहा था ...     
लेकिन ,२दिन बाद एक अजब वाकिया हुआ ..जिसने मेरा मन ही बदल दिया ----   
२दिन बाद मैं निक्की को लेकर घर आ गई --दिल में कोई ख़ुशी नही थी --मन थोडा उदास था --पर पतिदेव बहुत खुश थे--उनको वैसे भी लडकियों से जरा ज्यादा ही लगाव हैं ..... 

रात को करीब १० बजे निक्की की साँसे उखड़ने लगी --नब्ज बहुत स्लो चल रही थी--हम घबरा गए --तुरंत उसे नर्सिग होम  डॉ के पास लेकर गए --डॉ ने चेक किया और कहा --'आपने इसे कुछ खिला दिया हैं --आप इसे नही चाहती थी न ' ??? मैं  हेरान रह गई --बात तो ठीक थी पर, मैने उसे कुछ नही खिलाया था सिर्फ शहद चटाया था ?मैने उससे  कहा --पर वो मानने  वाली नही थी --  बोली -- 'पुलिस कम्प्लेंट  तो करवानी पड़ेगी हम कुछ नही कर सकते ...'  
 मैने बहुत कहा-पहचान वाली डॉ थी, थोडा पसीजी ! बोली-- 'आप इसे बाम्बे ले जाए बच्चो के सरकारी  हास्पिटल  में ,यहाँ हम कुछ नही कर सकते--मैं चिठ्ठी लिख देती हूँ  ...!' हालाकि मैं  बहुत डर गई थी  और इसी कारण मैने उसे यह नहीं बताया की मैने उसे थोड़ी सी अफीम भी चटाई हैं --हमारे यहाँ रिवाज है की बच्चे को थोड़ी सी अफीम भी चटाते हैं ताकि वो आराम से सो सके और पेट की गंदगी भी निकल सके ...शायद मैने नासमझी में थोडा -सा डोज ज्यादा दे दिया होगा ....
खेर, रात ३ बजे हम वसई से टेक्सी कर ग्रांड रोड स्थित वाडिया हास्पिटल चल पड़े --हमे २ घंटे लग जाना था ....रास्ते भर  उस नन्ही सी जान पर बहुत तरस आता रहा..मेरा हाथ उसकी नब्ज पर ही था और मैं अपने आप को कोस  रही थी की मेरी वजय से इस नन्ही -सी जान पर यह कयामत टूटी हैं ..मैं मन ही मन   भगवान् से अपने किए की माफ़ी मांग रही थी ..मेरी मनहूस इच्छा ये मासूम बच्चा भुगत रहा था --डॉ को तो समझ आ गया था की कुछ खिलाया जरुर हैं ? पर मैं उसे बतला नही सकती थी..? मैं खुद डर गई थी ..उपर से २दिन की जच्चा !  बहुत कमजोरी महसूस कर रही थी ..लेंकिन अपनी कमजोरी को नजरंदाज कर मैं निक्की के प्राणों की भीख मांग रही थी ...माँ की ममता की आखिर जीत हुई ..


हम वाडिया हास्पिटल पहुंचे तब तक सुबह हो चुकी थी ..वो काली अमावस्या की रात बीत चुकी थी ---निक्की भी अब नार्मल साँसे ले रही थी ---शायद अफीम का असर खत्म हो चूका था --हमने OPD में दिखाया तो डॉ बोला यह नार्मल हैं --?आप घर जा सकते हैं ...
 मेरा ख़ुशी का ठिकाना नहीं था ..आँखों में ख़ुशी के आंसू थे --हम वापस घर चल पड़े ...
भगवान् ने मुझे एक करार झटका दिया था ?

आज मेरी  उसी बेटी का जनम दिन हैं ...निक्की बहुत समझदार और हुशियार लडकी हैं ...हमारे घर की रोंनक और सबकी चाहती ...
   
आज उसको एक कविता रूपी भेट देना चाहती हूँ :--






" एक अजन्मी बेटी की इल्तजा "

ओ माँ मेरी !मुझे कोख मैं न मार 
मुझे देखने दे यह प्यारा संसार 
तेरी गोद में मुझ को रहने दे 
कुछ पल मुझे और जीने दे 
ओ माँ मेरी ..
मुझे तुझ से कुछ और नही लेना हैं 
बेटी होने का अधिकार मुझको देना हैं 
क्यों तू मेरा गला घोट रही हैं
ओ माँ मेरी . ..
तू भी तो एक माँ की जननी हैं 
देखने यह संसार आई हैं 
फिर क्यों मेरा वजूद मिटाने चली है
ओ माँ मेरी ...
मुझे मारकर तुझे क्या मिलेगा !
बेटियां तो होती हैं घर का गहना ! 
 ओ माँ मेरी ...
मारकर मुझ को तू क्या करेगी 
यह दंड तू सारे जनम भरेगी 
इस निठुर समाज के लिए 
तू मुझे यू न उजाड़ 
ओ माँ मेरी ...
अपनी कोख को तू कब्रस्तान न बना 
मुझे इस कब्र में जिन्दा न दफना 
सुन ले मेरी चीख -पुकार 
ओ माँ मेरी ...
यह कैसा समाज है माँ !
यह कैसा रिवाज है माँ !
पुत्र जन्मे तो चाँद चढ़ जाए 
पुत्री जन्मे तो अधियारा घिर आए 
यह कैसा इन्साफ हैं माँ ?
यह कैसा समाज है माँ ?
तू इन कसाइयो में क्यों मिल गई 
ओ माँ मेरी ..
कर ले मेरी मौत से तोबा !
मैरी जिंदगी से गर्व तुझे होगा !!
ओ माँ मेरी ...


पुत्रियों को न मारो करो इस बात से तोबा !
क्योकि यह होती हैं हमारे घर की शोभा !!
   
   
      





Saturday, July 30, 2011

क्यों होते हें ये धमाके ?????





अरमां तमाम उम्र के सीने में दफन हैं !
हम चलते-फ़िरते लोग मजारों से कम नहीं !! (अज्ञात)


बचपन की वो प्यारी गुड़िया
मुझको हरदम याद आती है
गोल -मटोल आँखे थी उसकी 
परियों जैसी लगती थी 

एक दिन पापा ने उसको 
मेरी गोद में पटका था
कहते थे- तेरी है बन्नो --
हरदम संग -संग रहना है



गोद में उठाकर उसको 
सारी बस्ती घुमा करती थी मैं ?
कोई  पूछता नाम क्या है बन्नो --
अप्पू !सबको बतलाती थी मैं  !
अप्पू !को खिलाती थी मैं !
अप्पू !को पहनाती थी मैं !
अप्पू के संग सोती थी मैं !
अप्पू का हर दुःख सहती थी मैं --




इक दिन वो बे-जान हो गई ?
मुझसे यूँ अनजान हो गई ?
हाथ किधर था --?
पैर कहाँ हैं --?
खून ???
खून से सन गई थी ?

जिस्म किधर था पता नहीं --?
जान किधर थी अता नहीं --?
रोते-रोते धूम  रही थी --
बिखरे टुकड़े ढूंढ रही थी --? 




ऐसा क्यों होता है हरदम --
खेलने वाले खेल जाते हैं --
अपने फिर गुम हो जाते हैं --
आँखों में आंसू की धारा --
अपने ही क्यों दे जाते हैं --????

बिन होली क्यों खेली जाती 
खून से भरी पिचकारियाँ --
बिन दिवाली क्यों चलाई जाती 
बमों की यह लड़ियाँ  --



गुम हुए अपनो को फिर हम --
कैसे ढूंढें ? कहाँ ढूंढें ..??
क्यों कुछ पता नही दे जाते ?
क्यों होते हैं ये धमाके ?
क्यों होते हैं ये धमाके ?????   

  

क्यों होते हैं ये धमाके ?????